पर्यावरण दिवस पर विशेष, पर्यावरण चेतना के अग्रदूत : गुरु जाम्भोजी
जालन्धर (अरोड़ा) - भारतीय संस्कृति में पर्यावरण को दैवतुल्य स्थान प्राप्त है। आदिम सभ्यता से ही प्रकृति के नाना रूपों यथा- सूर्य, धरती, नदी, पर्वत, पीपल, खेजड़ी, गाय आदि की पूजा का विधान भारतीय संस्कृति का अभिन्न अंग रहा है। पर्यावरण मनुष्य की जीवनदायिनी सत्ता है। पर्यावरण का अर्थ है- जीवन को संरक्षण प्रदान करने वाला कवच अर्थात् हमारे चारों ओर का आवरण। पर्यावरण संरक्षण से अभिप्राय है कि हम अपने चारों ओर के आवरण को संरक्षित करें तथा उसे अनुकूल बनाएं। पर्यावरण और प्राणी एक-दूसरे पर आश्रित है। यही कारण है कि भारतीय चिंतन परंपरा में पर्यावरण संरक्षण की अवधारणा उतनी ही प्राचीन है, जितना यहाँ मानव जाति का ज्ञात इतिहास है। मानव सभ्यता द्वारा प्रकृति के आश्रय में जीवनयापन करने के प्रमाण इतिहास में सुरक्षित है। आदिवासियों के संदर्भ में जल, जंगल, जमीन का महत्व आज भी नजर अन्दाज नहीं किया जा सकता। सृष्टि में प्राणी-मात्र का जीवन प्रकृति के बिना असम्भव प्रायः है।
भौतिक विकास के दौर में नगरीकरण की ओर बढ़ते कदमों ने मनुष्य को प्रकृति से दूर कर दिया। भले ही मनुष्य सभ्य कहला कर जंगल और गुफाओं को छोड़कर पक्के भवनों में रहने लग गया है, किन्तु इस तरह सभ्य होने का परिणाम समस्त सृष्टि के समक्ष उभर चुके हैं। वर्तमान युग में पर्यावरण प्रदूषण, जलवायु परिवर्तन, जीव-जैविक जगत् से भिन्न-भिन्न वनस्पतियों एवं प्राणियों की प्रजातियों का विलुप्त होना जैसी समस्याएँ दिन-प्रतिदिन भयानक होती जा रही है। प्राकृतिक असन्तुलन के कारण बढ़ते तापमान से हिमखण्ड पिघल रहे हैं। ग्लोबल वार्मिंग की भयावह स्थिति से पूरा विश्व आंतकित है। प्राकृतिक दहन करके मनुष्य अपने ही अंग को काट खाने की स्थिति में खड़ा नजर आता है। इसका वर्तमान उदाहरण आक्सीजन की कमी के सन्दर्भ में देखा जा सकता है।
समस्त संसार का कल्याण इस चिन्तनधारा का मूलाधार है। संत-साहित्य समूची मानवता के कल्याण की भावना से ओत-प्रोत है। भारतभूमि ऋषि-मुनियों, सन्तों-भक्तों की तपोभूमि रही है। सन्तों का चिन्तन कभी कूपमंडूक नहीं रहा। कहा भी गया है-
‘सन्त जब आत जगत् में माँगत सबकी खैर’
सन्त-परम्परा में गुरु जाम्भोजी (जम्भेश्वर) का स्थान सर्वोपरि हैं। युगपुरुष गुरु जाम्भोजी का अवतरण सम्वत् 1508 में राजस्थान के नागौर परगने के पीपासर नामक कस्बे में हुआ। गुरु जाम्भोजी संत होने के साथ-साथ दूरद्रष्टा, वैज्ञानिक व पर्यावरणविद् भी थे। गुरु जाम्भोजी ने भावी समस्याओं को मध्यकाल की पंद्रहवीं शताब्दी में चिह्नित करते हुए दूरदृष्टि का परिचय दिया। आधुनिक युग में सारे विश्व के समक्ष जो समस्याएं सुरसा की भांति मुँह बाये खड़ी है, उनका निदान गुरु जाम्भोजी ने बहुत पहले ही वैज्ञानिकता से मंडित ‘29 नियमों’ की संरचनावली के तहत सुझा दिया था। वृक्षों द्वारा प्रदत्त आक्सीजन जीवन का आधार है, इसी लिए गुरु जाम्भोजी ने हरे वृक्ष काटने पर पूर्ण प्रतिबंध लगा दिया था। उन्होंने सबदवाणी के सबद संख्या 19-20 में वृक्षों को काटने पुरजोर विरोध किया है-
‘जीव दया पालणी, रूंख लीला नहीं घावै’
गुरु जाम्भोजी का वृक्षों के प्रति आत्मीय प्रेम था। उनके द्वारा प्रणीत बिश्नोई सम्प्रदाय के अनुयायियों द्वारा वृक्ष हितार्थ ‘खेजड़ली बलिदान’ की घटना समूचे विश्व के लिए प्ररेणास्रोत है। सन् 1730 में जोधपुर महाराजा अभय सिंह ने किले के निर्माण हेतु खेजलड़ी गाँव में वृक्ष काटने के लिए कारिन्दे भेजें। महाराजा के कारिन्दों का बिश्नोई समाज के लोगों ने विरोध किया।सर्वप्रथम अमृता बिश्नोई ने अपने दोनों पुत्रियों के साथ वृक्षों के हितार्थ इस यज्ञ में प्राणों की आहुति देकर पर्यावरण के प्रति अनूठे प्रेम की मिशाल पेश की। पितृसत्तात्मक सत्ता व पर्दा प्रथा के उस दौर में वृक्षों के लिए प्राणोत्सर्ग करके अमृता बिश्नोई ने यह साबित कर दिया था कि बिश्नोई समाज में एक माँ को अपनी सन्तान से भी अधिक वृक्ष प्यारे होते हैं। अमृता के बाद एक एक करके गाँव के 363 लोग इस घटनास्थल पर वृक्षों को बचाने के लिए शहीद हुए। ‘खेजड़ली बलिदान’ की घटना विश्व की एकमात्र ऐसी घटना है जहाँ वृक्षों को बचाने के लिए बलिदान हुआ था।
सोम (चन्द्रमा), अमावस (अमावस्या), आदित (सूर्य) से रहित कोई समय नहीं होता। दिन में सूर्य, रात्रि में चन्द्रमा, अन्धेरी रात्रि में अमावस्या रहेगी। इसलिए हरे वृक्ष काटना सदा ही वर्जित है।
गुरु जाम्भोजी ने स्वयं प्राकृतिक परिवेश के साथ तादात्म्य स्थापित करते हुए जीवन व्यतीत किया। मरूभूमि में प्रकृति समय समय पर अपना रंग दिखाती है- कभी शीत हवाएं, कभी भयंकर लू, तो कभी अनावृष्टि, कभी अतिवृष्टि। इस प्रकार के वातावरण में गुरु जाम्भोजी ने हरि कंकहेड़ी की शरण में अपना जीवन व्यतीत किया।
‘रात पड़न्ता पाळा भी जाग्या, दिवस तपंता सूरूं
उन्हां ठंडा पवना भी जाग्या, घन बरषंता नीरूं’
प्रकृति प्रेमी होने के नाते गुरु जाम्भोजी ने समस्त प्राकृतिक संरचना में जीव-जन्तुओं को भी मानव-समाज का अभिन्न अंग माना है। निर्दोष जीवों पर अत्याचार व उनकी हत्या का प्रखर विरोध जाम्भोजी की वाणी का मूलाधार है।
सुण रे काजी सुण रे मुल्ला, सुण रे बकर कसाई।
किणरी थरपी छाली रोसो, किणरी गाडर गाई।
सूल चुभीजै करक दुहैली, तो है है जायों जीव न घाई।
थे तुरकी छुरकी भिस्ती दावों, खायबा खाज अखाजूं।
चर फिर आवै सहज दुहावै, तिसका खीर हलाली।
जिसके गले करद क्यूं सारो, थे पढ़ सुण रहिया खाली।
पृथ्वी ग्रह पर प्राकृतिक संतुलन मानव-जीवन के अनिवार्य तत्त्व है। पर्यावरण संरक्षण प्रत्येक व्यक्ति का कर्तव्य है। इस कर्तव्य से विमुख होने वाले व्यक्ति को गुरु जाम्भोजी ने फटकार लगाते हुए कहा है कि मुहमद हलाली नहीं है, फिर तुम क्यों मुर्दा खाते हो-
‘महमद साथ पयंबर सीधा, एक लख असी हजारूं
महमद मरद हलाली होता, तुम ही भये मुरदारूं’
भारतीय संसद द्वारा भी पर्यावरण संरक्षण के लिए अनेक अधिनियम पारित किए गए है-
o वन्य जीवन संरक्षण अधिनियम (1972)
o जल प्रदूषण नियंत्रण अधिनियम (1974)
o वायु प्रदूषण नियंत्रण अधिनियम (1981)
o पर्यावरण संरक्षण अधिनियम (1986)
o खतरनाक अपशिष्ट प्रबंधन एवं निष्पादन अधिनियम (1989)
o ध्वनि प्रदूषण नियमन एवं नियंत्रण अधिनियम (2000)
o भारतीय दंड संहिता (1860)
o इकोवार्म स्कीम
पर्यावरण दिवस पर पर्यावरण जागृति अभियान व विभिन्न कार्यक्रमों के माध्यम से पर्यावरण संरक्षण के प्रति सचेत करने का उद्यम प्रशंसनीय है। वन एवं पर्यावरण मंत्रालय के इन ध्येयों में वनस्पतियों, वनरोपण, जीव-जन्तुओं और वन्य जीवों का संरक्षण, प्रदूषण नियंत्रण एवं निवारण, पर्यावरण की सुरक्षा सुनिश्चित करना शामिल है। गुरु जाम्भोजी द्वारा सुझाये 29 नियम आज के भयावह समय में भी कारगार साबित हो रहे हैं। गुरु जाम्भोजी के पर्यावरण विषयक चिन्तन की व्यापकता स्वयंसिद्ध है। उनके चिन्तन की प्रासंगिकता उत्तरोतर बनी रहेगी, जब तक मनुष्य अपने अंग रूपी वृक्षों को काटने से बाज नहीं आएगा।
डॉ॰ विनोद बिश्नोई
सहायक प्रोफेसर, हिन्दी-विभाग व पी॰आर॰ओ॰
डी॰ए॰वी॰ कॉलेज, जालन्धर, पंजाब