कबीर एक उच्चकोटि के संत,कवि और चिंतक के रूप में प्रतिष्ठित हैं – प्रिंसिपल डॉ. सरबजीत कौर राय,

कबीरा खड़ा बाजार में मांगे सबकी खैर,

ना काहू से दोस्ती ,ना काहू से बैर।

कबीर एक उच्चकोटि के संत,कवि और चिंतक के रूप में प्रतिष्ठित हैं । यद्यपि उनकी चेतना आध्यात्मिक  थी,स्वभाव से संत और मन से साधक थे तथापि कर्म से सुधारक थे। वह सामजिक वैषम्य से क्षुब्ध थे। दलित एवं शोषित वर्ग के प्रति उनमें गहरी सहानुभूति थी। उनका लक्ष्य समाज कल्याण था। उन्होनें मानव-मानव के मध्य व्याप्त असमानता की गहरी खाई के गहन अन्धकार में डूबे साधारण जन की पीड़ा की अभिव्यंजना की ,क्योंकि वह मनुष्य के जाति धर्म को नहीं मानते और सृष्टि को उस परम सत्ता की सृजना मान कर प्रत्येक प्राणी को उसी सत्ता का अंग मानते हुए कहते हैं :-

                पांच तत्त का पुतला ,रज बीरज की  बूँद

                 एक्कै घाटी तीसरा ,ब्राह्मण क्षत्री शूद्र।

कबीर मानव के भौतिक अस्तितव से बहुत चिंतित हैं। उन्हें लगता है की यह देह मिटटी के पुतले के समान क्षणभंगुर है। जगत में व्यक्ति का आना एक अथिति से बढ़कर कोई अर्थ नहीं रखता। लाखों करोड़ों के मालिक भी अंत में कुछ साथ नहीं ले जा पाते ,उन्हें अंत में नंगे पांव ही जाना पड़ता है। प्राण निकल जाने पर हड्डियां लकड़ी की तरह जल जाति हैं ,केश घास की भांति सड़ जाते हैं ,सांसारिक नाते रिश्ते ,माता -पिता ,भाई -पुत्र ,पत्नी ,मित्र आदि सभी धोखा मात्र हैं। यह सब जानते हुए भी मानव इस माया -जाल में फंसा हुआ है और कबीर के लिए मानवीय संबंधों की इस सुखद पिपासा की दुखद परिणीति बहुत ही निराशाजनक है। वह जानते हैं इस भौतिक सुख की परिकल्पना ही दुखों का मूल है किन्तु फिर भी इस अंधकारपूर्ण वास्तविकता से अपरिचित मनुष्य ,मानवीय संवेदना से दूर,निज के अस्तित्व की रक्षा हेतु दिन रात भाग रहा है;-

                 ऐसा कोई न मिलैं जा सौं रहसि लागि ,

                 सब जग जरता देख्या अपनी अपनी आगि।

कबीर शोषण मूलक सामंती व्यवस्था के विरोधी हैं। उन्होनें उस वर्ग से गहरा तादात्म्य स्थापित किया जो सामंती शोषण की चक्की में पीस रहा था। वह ऊंच नीच का भेद मानने वाले को पशु के समान मानते थे ;-

                 जब लग ऊच-नीच करि जाना,

                  ते पसुवा भूले भ्रम जाना।

वह सामंती अवधारणा जिसमें व्यक्ति की श्रेष्ठता कुल से निर्धारित की जाती है, को नकारते हुए कर्म के महत्तव पर बल देते हैं;-

                 ऊंचे कुल क्या जनमिया ,जे करणी उंच ना होई ।

वह उस खोखले ज्ञान को भी व्यर्थ मानते हैं जिसमें मानव हित संवेदन व प्रेम भाव नहीं ;-

                  पढ़ि-पढ़ि के पत्थर भया,लिखि लिखि भया जो ईंट ,

                  कहै कबीरा प्रेम की लगी न एको छींट।

वास्तव में कबीर का धर्म सच्चा मानव धर्म है ,जो मनुष्य को तोड़ता नहीं ,जिसमें सभी धर्मों का मूल एक ही है ,जिसमें बाहरी आडम्बरों का कोई स्थान नहीं। उन्होंने ऐसे धर्म का प्रचार किया जिसका आधार विश्वास और व्यक्तिगत अनुभव है जो सभी प्रकार के मताग्रहों से परे है ,जो सभी प्रकार के साम्प्रदायिक विवादों और औपचारिक धार्मिक मान्यताओं से रहित है । वह ऐसे सत्य पर आधारित है जो हमारे निहित है और जिसमें समूह -जन  की भलाई,कल्याण , सुख व  खैर की भावना निहित है।

                                                                                                        डॉ. सरबजीत कौर राय,

                                                                          प्रिंसिपल , लायलपुर खालसा कॉलेज फॉर वीमेन ,

                                                                                                                   जालंधर।

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